Chandrashekhar Azad; मैं आजाद हूं,आजाद ही रहूंगा – महान क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद की 116वीं जयंती पर विशेष लेख- डॉ.पंकज शर्मा
शायरी, चुटकुले और बेबुनियादी लेख तो बहुत हुए लेकिन आज मैं आप सभी को परिचित कराना चाहता हूं एक ऐसे हीरो से जो सही मायनों में देश के हीरो थे। फिल्मी पर्दे पर जो कारनामे आज के हीरो बॉडी डबल बीबीकरने के बाद भी नहीं कर पाते वह एक समय महान क्रांतिकारी और देशभक्त शहीद Chandrashekhar Azad ने कर दिखाया था।शहीद चन्द्रशेखर आजद की कहानी जब भी मैं पढ़ता हूं ,मैं जब आजाद को जीता हूं तो दिल के अंदर एक अलग सी भावना और ज्वार जाग उठता है जो इस भ्रष्टाचार में लिप्त भारतमाता को आजाद करने का हौसला और विश्वास रखता हूं।
आज हम जिस आजाद भारत में जी रहे हैं वह कई देशभक्तों की देशभक्ति और त्याग की वेदी से सजी हुई यज्ञ शाला है । भारत आज जहां भ्रष्टाचारियों से भरा हुआ नजर आता है वहीं एक समय ऐसा भी था जब देश का बच्चा-बच्चा देशभक्ति के गाने गाता था,भारत में ऐसे भी काफी देशभक्त तो ऐसे थे, जिन्होंने छोटी सी उम्र में ही देश के लिए अतुलनीय त्याग और बलिदान देकर अपना नाम स्वर्णिम अक्षरों में में अंकित करवाया. इन्हीं महान देशभक्तों में से एक थे चन्द्रशेखर आजाद.
आज महान क्रांतिकारी आजाद का जन्मदिवस है हमने केवल आजाद कहानियां किताबों में पढ़ी और बॉलीवुड फिल्मों में कई फिल्मों भी देखीं है परंतु क्या…..?
हमने आजाद की कही बातों और उनके संघर्ष को कभी आत्मसाध किया है कभी आजाद के विचारों को अपने जीवन में उतारा है तो हममें से लगभग लोगो का जवाब शायद न होगा,क्योंकि हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में अवश्य रहते हैं हम स्वयं को आजाद और स्वच्छंद भी कहते हैं पर यकीनन हम आज भी स्वतंत्र और आजाद होने के बाद भी मानसिक रूप से,वैचारिक रूप से कोलोनियल मानसिकता और मैकेलियन शिक्षा पद्धति के गुलाम हैं, हम आज भी आजाद भारत में गलत को गलत और सही को सही को कहने में डरते हैं, और यदि कोई सत्य का साथ देता हैं तो आम जनता उसे पागल या हरिश्चंद्र के नाम का तमगा लगाकर मजाक का पर्याय बना देती है। इसलिए जीना है तो आजाद की तरह जिओ – “मैं आजाद हूं और आजाद ही रहूंगा”……….
महान क्रांतिकारी चन्द्रशेखर आजाद का जन्म भाबरा गाँव (अब चन्द्रशेखर आजादनगर,वर्तमान अलीराजपुर जिला, पुराना झाबुआ जिला ) में एक ब्राह्मण परिवार में 23 जुलाई सन् 1906 को हुआ था। उनके पूर्वज ग्राम बदरका वर्तमान उन्नाव जिला (बैसवारा) उत्तर प्रदेश से थे। आजाद के पिता पण्डित सीताराम तिवारी भीषण अकाल के कारण अपने पैतृक निवास बदरका को छोड़कर मध्य प्रदेश अलीराजपुर रियासत में नौकरी करने आ गए,और भाबरा गाँव में बस गये। यहीं बालक चन्द्रशेखर का बचपन बीता। उनकी माँ का नाम जगरानी देवी था। आजाद का प्रारम्भिक जीवन आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र में स्थित भाबरा गाँव में बीता, बचपन में आजाद ने भील बालकों के साथ खूब धनुष-बाण चलाये। इस प्रकार उन्होंने निशानेबाजी बचपन में ही निशानेबाजी का खेल खेल में ही प्रशिक्षण प्राप्त कर लिया। Chandrashekhar Azad का मन देश की स्थिति को देखकर सशस्त्र क्रान्ति की ओर मुड़ गया। उस समय बनारस क्रान्तिकारियों का गढ़ था।
आजाद उस समय के क्रांतिकारी मन्मथनाथ गुप्त और प्रणवेश चटर्जी के सम्पर्क में आये और क्रान्तिकारी दल के सदस्य बन गये। क्रान्तिकारियों का वह दल जिसमे राम प्रसाद बिस्मिल, शचींद्रनाथ सान्याल, योगेशचन्द्र चटर्जी ने सन 1924 में उत्तर भारतीयों को लेकर एक दल “हिन्दुस्तानी प्रजातन्त्र संघ” के नाम से बनाया गया था जिस दल में आजाद भी सदस्य भी बन गए।
चंद्रशेखर तिवारी का नाम आजाद कैसे पड़ा-
आजाद प्रखर राष्ट्रभक्त थे, सन 1920 में 14 वर्ष की आयु में चंद्रशेखर आजाद गांधी जी के असहयोग आंदोलन से जुड़े थे. देश की आजादी के लिए कुर्बानी देने वाले क्रांतिकारी Chandrashekhar Azad जब पहली बार अंग्रेजों की कैद में आए तो उन्हें 15 कोड़ों की सजा दी गई थी। 14 साल की उम्र में ही वो गिरफ्तार हुए और जज के समक्ष प्रस्तुत किए गए. यहां जज ने जब उनका नाम पूछा तो पूरी दृढ़ता से उन्होंने कहा आजाद. पिता का नाम पूछने पर जोर से बोले, ‘स्वतंत्रता’. पता पूछने पर बोले- जेल. इस पर जज ने उन्हें सरेआम 15 कोड़े लगाने की सजा सुनाई. ये वो पल था जब उनकी पीठ पर 15 कोड़े बरस रहे थे और वो वंदे मातरम् का उदघोष कर रहे थे. ये ही वो दिन था जब देशवासी उन्हें Chandrashekhar Azad के नाम से पुकारने लगे थे. धीरे धीरे उनकी ख्याति बढ़ने लगी थी.
आजाद में एक बहुत बड़ी कला रही है वेश बदलने की । काकोरी काण्ड में फरार होने के बाद से ही उन्होंने छिपने के लिए साधु का वेश बनाना बखूबी सीख लिया था और इसका उपयोग उन्होंने कई बार किया। एक बार वे दल के लिये धन जुटाने हेतु गाज़ीपुर के एक मरणासन्न साधु के पास चेला बनकर भी रहे ताकि उसके मरने के बाद मठ की सम्पत्ति उनके हाथ लग जाये,परन्तु वहाँ जाकर जब उन्हें पता चला कि साधु उनके पहुँचने के पश्चात् मरणासन्न नहीं रहा अपितु और अधिक हट्टा-कट्टा होने लगा तो वे वापस आ गये। प्राय: सभी क्रान्तिकारी उन दिनों रूस की क्रान्तिकारी कहानियों से अत्यधिक प्रभावित थे आजाद भी थे लेकिन वे खुद पढ़ने के बजाय दूसरों से सुनने में ज्यादा आनन्दित होते थे। एक बार दल के गठन के लिये बम्बई गये तो वहाँ उन्होंने कई फिल्में भी देखीं। उस समय मूक फिल्मों का ही प्रचलन था अत: वे फिल्मो के प्रति विशेष आकर्षित नहीं हुए।
आजाद की क्रांतिकारी गतिविधियाँ
असहयोग आन्दोलन के दौरान जब फरवरी १९२२ में (चौरी चौरा) की घटना के पश्चात् जब महात्मा गाँधी जी ने असहयोग आन्दोलन को वापस ले लिया, तो देश के लाखो नवयुवकों को निराशा हुई और वे लाखों युवक कहीं न कहीं मानसिक रूप से महात्मा गांधी के विचारों से सहमत नहीं हुए। ऐसे ही लाखों युवकों की तरह आज़ाद का भी कांग्रेस से मोह भंग हो गया और पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल, शचीन्द्रनाथ सान्याल योगेशचन्द्र चटर्जी ने १९२४ में उत्तर भारत के क्रान्तिकारियों को लेकर एक दल हिन्दुस्तानी प्रजातान्त्रिक संघ (एच० आर० ए०) का गठन किया। Chandrashekhar Azad भी इस दल में शामिल हो गये। इस संगठन ने जब गाँव के अमीर घरों में डकैतियाँ डालीं, ताकि दल के लिए धन जुटा सके ,तो यह तय किया गया कि किसी भी औरत के ऊपर हाथ नहीं उठाया जाएगा।
एक गाँव में राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में डाली गई डकैती में जब एक औरत ने आज़ाद का पिस्तौल छीन लिया तो अपने बलशाली शरीर के बावजूद आज़ाद ने अपने उसूलों और शपथ के कारण उस पर हाथ नहीं उठाया। इस डकैती में क्रान्तिकारी दल के आठ सदस्यों पर, जिसमें आज़ाद और बिस्मिल भी शामिल थे, पूरे गाँव ने हमला कर दिया। बिस्मिल ने मकान के अन्दर घुसकर उस औरत के कसकर चाँटा मारा, पिस्तौल वापस छीनी और आजाद को डाँटते हुए खींचकर बाहर लाये।
जब आजाद ने महिला की आबरू बचाने को साथी पर चलाई गोली
अगली क्रांतिकारियों ने घर में घुसकर लूटपाट शुरू की। इस बीच दल के एक साथी की नजर वहां मौजूद एक नौजवान लड़की पर पड़ी। वासना में अंधे होकर उसने उस युवती से अभद्रता शुरू कर दी। चंद्रशेखर आजाद ने यह देखा तो उसे चेतावनी दी कि ऐसा न करे लेकिन उसने आजाद की बात नहीं मानी। चंद्रशेखर आजाद अपने सिद्धांतों के पक्के थे। उनके सामने किसी महिला की इज्जत से खिलवाड़ हो, वह बिल्कुल बर्दाश्त नहीं कर सकते थे। गुस्से में उनका चेहरा लाल हो उठा और उन्होंने अपने उस साथी पर गोली चला दी। फिर उन्होंने उस युवती से इस अभद्रता की माफी मांगी और उस जगह से कुछ लिए बिना ही लौट गए। यानी दूसरी डकैती में भी HRA के क्रांतिकारियों के हाथ कुछ नहीं लगा।
काकोरी कांड के बाद भगत सिंह से हो गया जुड़ाव
चंद्रशेखर आजाद ने एच आर ए के अपने साथियों संग मिलकर बाद में कई डकैतियां डालीं। उनके क्रांतिकारी जीवन को दो हिस्सों में बांटा जा सकता है। पहला हिस्सा काकोरी कांड (1923) तक है जहां तक उन्होंने शचींद्रनाथ सान्याल, बिस्मिल जैसों के साथ मिलकर काम किया। काकोरी की घटना के लिए बिस्मिल, अशफाकुल्लाह खां, रोशन सिंह और राजेंद्र लाहिड़ी को फांसी की सजा दी गई थी। आजाद एच आर ए के इकलौते ऐसे बड़े नेता थे जो गिरफ्तारी से बचने में कामयाब रहे थे। इसके बाद आजाद ने भगत सिंह के साथ मिलकर भारत के क्रांतिकारी स्वतंत्रता संग्राम में सुनहरे पन्ने जोड़े एच आर ए का नाम बदलकर हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन कर दिया गया।
दिनांक १ जनवरी १९२५ को एच आर ए ने संपूर्ण हिन्दुस्तान में अपना “पर्चा द रिवोल्यूशनरी” बाँटा गया था,जिसमें दल की नीतियों का खुलासा किया गया था। इस पैम्फलेट में सशस्त्र क्रान्ति की चर्चा की गयी थी। इश्तहार के लेखक के रूप में “विजयसिंह” का छद्म नाम दिया गया था। शचींद्रनाथ सान्याल इस पर्चे को बंगाल में पोस्ट करने जा रहे थे तभी पुलिस ने उन्हें बाँकुरा में गिरफ्तार करके जेल भेज दिया। “एच० आर० ए०” के गठन के अवसर से ही इन तीनों प्रमुख नेताओं – बिस्मिल, सान्याल और चटर्जी में इस संगठन के उद्देश्यों को लेकर मतभेद था।
इस संघ की नीतियों के अनुसार ९ अगस्त १९२५ को काकोरी काण्ड को अंजाम दिया गया। जब शाहजहाँपुर में इस योजना के बारे में चर्चा करने के लिये मीटिंग बुलायी गयी तो दल के एक मात्र सदस्य अशफाक उल्ला खाँ ने इसका विरोध किया था। उनका तर्क था कि इससे प्रशासन उनके दल को जड़ से उखाड़ने पर तुल जायेगा और ऐसा ही हुआ भी। अंग्रेज़ चन्द्रशेखर आज़ाद को तो पकड़ नहीं सके पर अन्य सर्वोच्च कार्यकर्ताओँ – पण्डित राम प्रसाद ‘बिस्मिल’, अशफाक उल्ला खाँ एवं ठाकुररोशन सिंह को १९ दिसम्बर १९२७ तथा उससे २ दिन पहले ही राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी को १७ दिसम्बर १९२७ को फाँसी पर लटका दिया गया था । सभी प्रमुख कार्यकर्ताओं के पकडे जाने से इस मुकदमे के दौरान दल पाय: निष्क्रिय ही रहा। एकाध बार बिस्मिल तथा योगेश चटर्जी आदि क्रान्तिकारियों को छुड़ाने की योजना भी बनी जिसमें आज़ाद के अलावा भगत सिंह भी शामिल थे लेकिन किसी कारण वश यह योजना पूरी न हो सकी।
४ क्रान्तिकारियों को फाँसी और १६ को कड़ी कैद की सजा के बाद चन्द्रशेखर आज़ाद ने उत्तर भारत के सभी कान्तिकारियों को एकत्र कर ८ सितम्बर १९२८ को दिल्ली के फीरोज शाह कोटला मैदान में एक गुप्त सभा का आयोजन किया। इसी सभा में भगत सिंह को दल का प्रचार-प्रमुख बनाया गया। इसी सभा में यह भी तय किया गया कि सभी क्रान्तिकारी दलों को अपने-अपने उद्देश्य इस नयी पार्टी में विलय कर लेने चाहिये। पर्याप्त विचार-विमर्श के पश्चात् एकमत से समाजवाद को दल के प्रमुख उद्देश्यों में शामिल घोषित करते हुए “हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसियेशन” का नाम बदलकर “हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसियेशन” रखा गया। चन्द्रशेखर आज़ाद ने सेना-प्रमुख का दायित्व सम्हाला। इस दल के गठन के पश्चात् एक नया लक्ष्य निर्धारित किया गया – “हमारी लड़ाई आखरी फैसला होने तक जारी रहेगी।
लाला लाजपतराय का बदला और केंद्रीय असेंबली बम कांड
बात 1928 की है, जब भारत में अंग्रेजी हुकूमत थी और जब साइमन कमीशन भारत आ गया था। 30 अक्टूबर 1928 को जिसके विरोध में पूरे देश में आग भड़क उठी थी.। पूरे देश मे ‘ साइमन कमीशन वापस जाओ’ के नारे लग रहे थे, इस विरोध की अगुवाई पंजाब के लाल पंजाबी शेर ‘लाला लाजपत राय’ कर रहे थे,और लाहौर में 30 अक्टूबर 1928 को एक बड़ी घटना घटी जब लाला लाजपत राय के नेतृत्व में साइमन का विरोध कर रहे युवाओं को बेरहमी से पीटा गया। पुलिस ने लाला लाजपतराय की छाती पर निर्ममता से लाठियां बरसाईं, वे बुरी तरह घायल हो गए और इस कारण 17 नवंबर 1928 को उनकी मौत हो गई।
इस लाठीचार्ज का आदेश क्रूर सुप्रीटेंडेंट जेम्स ए स्कॉट ने लाठीचार्ज का आदेश दिया था। लाजपतराय की मृत्यु से सारा देश भड़क उठा,और चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव व अन्य क्रांतिकारियों ने लालाजी की मौत का बदला लेने की प्रतिज्ञा की.
कैसे हुई सांडर्स की हत्या…..?
लाला लाजपतराय के शहीद होने के ठीक एक माह बाद 17 दिसंबर 1928 दिन स्कॉट की हत्या के लिए समय निर्धारित किया गया,लेकिन निशाने में थोड़ी सी चूक हो गई। स्कॉट की जगह असिस्टेंट सुप्रीटेंडेंट ऑफ पुलिस जॉन पी सांडर्स क्रांतिकारियों का निशाना बन गए,सांडर्स जब लाहौर के पुलिस हेडक्वार्टर से निकल रहे थे, तभी भगत सिंह और राजगुरु ने उन पर गोली चला दी। ‘सांडर्स पर सबसे पहले गोली राजगुरु ने चलाई थी, उसके बाद भगत सिंह ने सांडर्स पर गोली चलाई।
सांडर्स की हत्या के बाद दोनों लाहौर से निकल लिए. अंग्रेजी हुकूमत सांडर्स की सरेआम हत्या से बौखला गई, सांडर्स की हत्या का दोषी तीनों को माना गया, जिसे लाहौर षडयंत्र केस माना गया. तीनों पर सांडर्स को मारने के अलावा देशद्रोह का केस चला और दोषी माना गया।
7 अक्टूबर 1930 को फैसला सुनाया गया कि भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी पर लटकाया जाएगा, इस पूरे षड्यंत्र का मास्टर माइंड आजाद ही थे कि लाला लाजपतराय की मौत का बदला कैसे लिया जाए।
आजाद के आजादी के अन्तिम पल और उनका संघर्ष
27 फरवरी 1931 को इलाहाबाद में अंग्रेजी फौज से अकेले ही भिड़े आजाद ने अपनी कसम को पूरा करने के लिए उस वक्त खुद पर गोली चलाई जब उनके पिस्टल से सिर्फ एक गोली बची थी। 15 अंग्रेज सिपाहियों को निशाना बनाने के बाद जब आजाद की पिस्टल में आखरी गोली बची थी तब उस गोली को खुद को मारकर देश के प्रति अपना सर्वोच्च बलिदान कर गए थे। वह आखिरी दिन आज भी कई बुजुर्गों को याद हैं और जाने कितनी किताबों में यह घटनाक्रम हमेशा के लिए अमर हो गया है।
आइये हम आपको आजाद के उस आखिरी दिन से परिचित कराते हैं और आजादी के नायक वीर योद्धा के अंतिम संघर्ष को जानते हैं –
अल्फ्रेड पार्क इलाहाबाद में चल रहा था विचार विमर्श
भगत सिंह की गिरफ्तारी के बाद अब उन्हें फांसी दिए जाने की तैयारियां चल रही थी। चंदशेखर आजाद इसे लेकर बहुत ज्यादा परेशान थे। वह जेल तोड़कर भगत सिंह को छुड़ाने की योजना बना चुके थे, लेकिन भगत सिंह जेल से इस तरह बाहर निकलने को तैयार नहीं थे। चंद्रशेखर आजाद हर तरह से भगतसिंह को की फांसी रोकने का प्रयास कर रहे थे। आजाद अपने साथी सुखदेव आदि के साथ आनंद भवन के नजदीक अल्फ्रेड पार्क में बैठे थे। वहां वह आगामी योजनाओं के विषय पर विचार-विमर्श कर ही रहे थे कि आजाद के अल्फ्रेड पार्क में होने की सूचना अंग्रेजों को दे दी गई।
मुखबिरी मिलते ही अंग्रेजों ने क्रांतिकारियों को घेर लिया। अंग्रेजों की कई टुकड़ियां पार्क के अंदर घुस आई जबकि पूरे पार्क को बाहर से भी घेर लिया गया। उस समय किसी का भी पार्क से बचकर निकल पाना मुश्किल था, लेकिन आजाद यूं ही आजाद नहीं बन गए थे । अपनी पिस्टल के दम पर उन्होंने पहले अपने साथियों को पेड़ों की आड़ से बाहर निकाला और खुद अंग्रेजों से अकेले ही भिड़ गए । हाथ में मौजूद पिस्टल और उसमें रही 8 गोलियां खत्म हो गई। आजाद ने अपने पास रखी 8 गोcलियों की दूसरी मैगजीन फिर से पिस्टल में लोड कर ली और रुक रुक कर अंग्रेजों को मुंहतोड़ जवाब देते रहे और अंत में अंतिम गोली आजाद ने अपनी पिस्टल कनपटी में रखकर खुद इस दुनिया से आजाद कर लिया।
क्या है आजाद की मौत का सच,सरकार लाए फाइल का सच सामने
महान क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद के बारे में कहा जाता है की आजाद के इस तरह अपनी जान दे देने की रहस्य एक फाइल में छुपा है।
चंद्रशेखर आजाद की मौत की कहानी भी उतनी ही रहस्यमयी है जितनी की नेताजी सुभाष चंद्र बोस की।
आजाद की मौत से जुडी एक गोपनीय फाइल आज भी लखनऊ के सीआइडी ऑफिस में रखी है। इस फाइल में उनकी मौत से जुड़ी महत्वपूर्ण बातें दर्ज हैं। फाइल का सच सामने लाने के लिए कई बार प्रयास भी हुए पर हर बार इसे सार्वजनिक करने से मना कर दिया गया। इतना ही नहीं भारत सरकार ने एक बार इसे नष्ट करने के आदेश भी तत्कालीन मुख्यमंत्री को दिए थे। लेकिन, उन्होंने इस फाइल को नष्ट नहीं कराया।
आजाद के जन्मदिन पर जानिए उनके शहीद होने के बाद क्या हुआ परिवार का हाल….
आजाद के शहीद होने के खबर उनकी मां को कई महीने बाद मिली थी। वो पहले ही ऐसी दुख की घड़ी से गुजर रही थी उस पर से जब उन्हें यह पता चला कि उनका बेटा नहीं रहा तो वह पूरी तरह टूट गई। आपको बताने जा रहा है कि चंद्रशेखर आजाद के शहीद होने के बाद उनकी मां ने कैसे जिदंगी काटी।बतातें हैं कि चंद्रशेखर ने अपनी फरारी के करीब 5 साल बुंदेलखंड में गुजारे थे। इस दौरान वे ओरछा और झांसी में रहे। ओरछा में सातार नदी के किनारे गुफा के समीप कुटिया बना कर वे डेढ़ साल रहे थे।फरारी के समय सदाशिव राव मलकापुरकर (आज जिन्हे 99 प्रतिशत भारतीय नहीं जानते हैं ,आप सागर के रहली के पास के निवासी थे और इनका पूरा परिवार आज भी अपने ग्राम में निवासरत हैं)उनके सबसे विश्वसनीय लोगों में से एक थे। आजाद इन्हें अपने साथ मध्यप्रदेश के झाबुआ जिले के भाबरा गांव ले गए थे और अपने पिता सीताराम तिवारी और माता जगरानी देवी से मुलाकात करवाई थी। सदाशिव,आजाद के शहीद होने के बाद भी ब्रिटिश शासन के खिलाफ संघर्ष करते रहे और कई बार जेल गए। देश को अंग्रेजों से आजादी मिलने के बाद वह चंद्रशेखर के माता-पिता का हालचाल पूछने उनके गांव पहुंचे। वहां उन्हें पता चला कि चंद्रशेखर की शहादत के कुछ साल बाद उनके पिता का भी देहांत हो गया था।
आजाद के भाई की मृत्यु भी उनसे पहले ही हो चुकी थी। पिता के देहांत के बाद चंद्रशेखर की मां बेहद गरीबी में जीवन जी रहीं थी। गरीबी के बावजूद उन्होंने कभी किसी के आगे हाथ नहीं फैलाया। वो जंगल से लकड़ियां काटकर लाती थीं और उनको बेचकर ज्वार-बाजरा खरीदती थी। भूख लगने पर ज्वार-बाजरा का घोल बनाकर पीती थीं। उनकी यह स्थिति देश को आजादी मिलने के 2 साल बाद 1949 तक जारी रही।
आजाद की मां का ये हाल देख सदाशिव उन्हें अपने साथ झांसी लेकर आ गए। मार्च 1951 में उनका निधन हो गया। सदाशिव ने खुद झांसी के बड़ागांव गेट के पास शमशान घाट पर उनका अंतिम संस्कार किया था। घाट पर आज भी आजाद की मां जगरानी देवी की स्मारक बनी है।
*क्या है चंद्रशेखर आजाद की मौत का सच – सुजीत आजाद की जुबानी
क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद के भतीजे सुजीत आजाद ने बयान जारी करके कहा था कि जवाहर लाल नेहरू ने ही अंग्रेजों को चंद्रशेखर आजाद के कंपनी बाग में होने की सूचना दी थी। इसके बाद अंग्रेजों ने उनको घेर लिया था। लेकिन फिर भी क्रांतिकारी आजाद अपनी आखिरी गोली तक अंग्रेजों से लडे़ थे।
साथ धोखा भी किया।
भगत सिंह, सुखदेव तथा राजगुरु की फांसी रुकवाने के लिए आज़ाद ने दुर्गा भाभी को गांधीजी के पास भेजा जहां से उन्हें कोरा जवाब दे दिया गया था.
आज़ाद ने मृत्यु दण्ड पाए तीनों प्रमुख क्रान्तिकारियों की सजा कम कराने का काफी प्रयास किया. आजाद ने पण्डित नेहरू से यह आग्रह किया कि वे गांधी जी पर लॉर्ड इरविन से इन तीनों की फांसी को उम्र- कैद में बदलवाने के लिये जोर डालें. नेहरू जी ने जब आजाद की बात नहीं मानी तो आजाद ने उनसे काफी देर तक बहस भी की.
पंडित नेहरू के साथ बहस के बाद वह इलाहबाद के अल्फ्रेड पार्क की ओर चले गए. अल्फ्रेड पार्क में अपने एक मित्र सुखदेव राज से मन्त्रणा कर ही रहे थे, तभी पुलिस ने उन्हें घेर लिया. भारी गोलाबारी के बाद जब आजाद के पास अंतिम कारतूस बचा तो उन्होंने खुद को गोली मार ली.
चंद्र शेखर आजाद, सजा-ए-मौत पाए तीनों साथियों- भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की सजा रुकवाने के लिये उन दिनों जेल में बंद गणेश शंकर विद्यार्थी से मिलने पहुचे और विद्यार्थी की सलाह पर आजाद इलाहाबाद आये और जवाहरलाल नेहरू से मिलने आनन्द भवन गये। पंडित नेहरु से आजाद ने यह निवेदन किया कि महत्मा गांधी से बात कर लॉर्ड इरविन से इन तीनों की फांसी को उम्र कैद में बदलने को कहें। घंटो की बातचीत बेनतीजा रही और पंडित नेहरू ने जब आजाद की बात नहीं मानी तो कहा जाता है की आजाद ने उनसे काफी देर तक बहस की, जिससे नेहरू ने आजाद को आनंद भवन से चले जाने को कहा।
जंग-ए-आजादी के समय आजाद का ठीकाना इलाहबाद में भी लम्बे समय तक रहा। उन दिनों आजाद हिन्दू यूनिवर्सिटी (अब हिन्दू हास्टल) कैम्पस में रहा करते थे। 27 फरवरी 1931 को आजाद इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क (अब आजाद पार्क) में किसी साथी से तय योजना के तहत मिलने पहुचे थे। उस दरमियान मुखबिर की सुचना पर पुरे पार्क को अंग्रेजो ने घेर लिया। आजाद का खौफ ब्रिटिश हुकुमत को इतना था की उस समय अकेले आजाद से निपटने पूरी पलटन ने घेरा बंदी की थी। उसके बावजूद अंग्रेजो से लोहा लेते हुये कई अंग्रेजी अफसरों को मौत के घाट उतार दिया। घंटो की घेरा बंदी और गोली बारी के बीच अपनी कसम पूरी की और अंग्रेजों के हाथ नहीं पड़े और आखिरी से खुद को अल्फ्रेड पार्क में मार लिया।चन्द्रशेखर आजाद को गोली लगने के बाद भी अंग्रेज सिपाही उनके पास जाने की हिम्मत नही जुटा पा रहे थे। उस समय बिना किसी सुचना के उनका अन्तिम संस्कार कर दिया था। जैसे ही आजाद के मौत की खबर लोगों तक पहुची पूरा इलाहाबाद अलफ्रेड पार्क में उमड पड़ा। जिस पेड़ के निचे आजाद शहीद हुए आज भी उसकी पूजा होती है। अब अल्फ्रेड पार्क आजाद पार्क है। आज भी आजाद की कहनियां इन फिजाओं में तैर रही हैं।
कुछ परिवारो ने लूटा शहीदों का खजाना – सुजीत आजाद
पंखे बाइंडिंग करके जीवन यापन करने वाले सुजीत आज़ाद ने कहा कि जंग-ए-आजादी के लिए क्रांतिकारियों ने अंग्रेजी खजाना लूटा और इलाहाबाद में आनंद भवन में मोती लाल नेहरू को सौंपा था। आज यह बात साबित हो चुकी है तो गांधी परिवार को चंद्रशेखर आजाद द्वारा सौंपे गए खजाने का हिसाब देना चाहिए।
इस संबंध में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से भी शहीदों के परिजनों ने मिलकर ज्ञापन दिया था।